आज के भारत में बीस करोड़ ऐसे किसान हैं जिनके पास अपनी भूमि नहीं है। दूसरे किसान की खेती करते हैं या फिर खेतों में मजदूरी कर जीवन यापन करते हैं। इनके जीवन में कभी ऐसा मौका नहीं आता कि वे कृषि कर्म के लिए बैंक से कर्ज लें, कृषि करें और फिर फसल नष्ट हो जाए, बैंक के कर्ज चुका नहीं पाएं और अंतत: बैंक उनके संपत्ति को निलाम कर दे।
फिर भी प्रतिदिन किसान आत्महत्या कर रहे हैं। जिनमें से महाराष्ट्र और आन्ध्रप्रदेश के किसान क्रमश: पहले और दूसरे नम्बर पर हैं। आत्महत्या वे किसान कर रहे हैं जिनके पास थोड़ी – बहुत भूमि है और आत्महत्याओं का ऊंचा दर इन्हीं राज्यों में क्यों है ? दस-बीस लाख की अचल संपत्ति का मालिक किसान एक खास मनोदशा में आत्महत्या क्यों कर लेता है? आत्महत्या के बजाय वह एक काम तो कर ही सकता है कि किसानी छोड़ कोई दूसरा काम कर ले। या फिर भूमिहीन मजदूर की तरह काम कर जीवन – यापन कर ले। पर ऐसा नहीं हो रहा है। क्योंकि आत्महत्याओं का कारण जितना आर्थिक नहीं, उससे ज्यादा समाजशास्त्रीय और मनोवैज्ञानिक है।
इस कारण हमें कृषि के अर्थशास़्त्र को समझना पड़ेगा। हाल में जो आंकड़े आए हैं उनमें इस बात का खुलासा भी हुआ है कि तीस फीसद ग्रामीण आबादी भूमिहीन है। कभी जोर-शोर से यह नारा लगाया जाता था कि ‘जो जमीन को जोते बोए, वह जमीन का मालिक होए।’ लेकिन यह नारा कभी जमीन पर उतर नहीं पाया। यह भी हकीकत है कि आदिवासियों को छोड़ छोटी जोत के मालिक अधिकतर किसान कब के खेती छोड़मजदूर बन चुके हैं क्योंकि खेती करना उनके बस का नहीं रहा। उससे उनका पेट ही नहीं भरता। इसके अलावा वह अब महंगी भी हो चुकी है। खेती तो अब वैसे ही किसान करते हैं जिनके पास जमीन का अपेक्षाकृत बड़ा भू-भाग है और जो मजदूर रखने और बीज, खाद, पानी, डीजल, बिजली आदि के खर्च उठा सके।
इसी कारण कृषि अलाभकारी है और उसे लाभकारी बनाने के लिए उसका व्यवसायीकरण जरूरी है। और यह होगा कैसे? जमीन की क्षमता का अधिकतम दोहन कर। परंपरागत बीजों की जगह बहुदेशीय कंपनियों द्वारा आयातित बीज और रासायनिक खादों के इस्तेमाल से। कीटनाशकों के बड़े पैमाने पर इस्तेमाल से। यह एक वास्तविकता है कि नए किस्म के बीजों और रासायनिक खादों, खासकर यूरिया – डीएपी के प्रयोग से उपज बढ़ी। लेकिन खेती बेहद महंगी और बर्बाद हो गई।
देश के बड़े भू-भाग में धान की खेती होती है। अपने देश में धान के बीजों के विविध प्रकार थे। किसान फसल का एक हिस्सा बीज के लिए बचा कर रखता था। लेकिन बाजार में उपलब्ध बीजों का प्रचलन होते ही पुराने बीजों का प्रचलन खत्म हो गया। घरेलू बीज और बाजार के बीज की कीमत में अंतर क्या है? सामान्य बीज १८ रुपये किलो है तो बाजार का नपुंसक बीज ३०० रुपये किलो है। देशी बीज गोबर की खाद और अपेक्षाकृत कम पानी में भी फसल देते हैं, जबकि बाजार के बीजों के लिए रासायनिक खाद, भरपूर पानी और कीटनाशक जरूरी होता है।
इसका परिणाम यह हुआ कि एक बार उपज तो बढ़ी, लेकिन कृषिकर्म बाजार पर निर्भर हो गया। मुनापेâ वाली फसलों का प्रचलन बढ़ा। दलहन की खेती कम होने लगी। चावल और गेहूं के विकल्प वाली फसलों का उत्पादन बेहद कम हो गया। गन््नाा, कपास और सोयाबीन जैसी नगदी फसलों की खेती की तरफ किसानों का झुकाव हुआ। इसका परिणाम क्या हुआ कि किसान पूरी तरह से बाजार पर निर्भर हो गया और बाजार पर अंतरराष्ट्रीय माफियाओं का कब्जा है जो नपुंसक बीज और खतरनाक रासायनीक खाद / कीटमारक बेचते हैं। इन्हीं के चक्कर में आकर किसानों ने सर्वाधिक आत्महत्याएं की है।
कपास की उपज में वृद्धि के लिए बीटी कॉटन के नाम से एक नया बीज बाजार में उतारा गया था। प्रचार यह किया गया कि परंपरागत बीजों की तुलना में इससे तिगुनी फसल होती है। लेकिन ये बीज सामान्य बीजों से काफी महंगे मूल्य पर उपलब्ध हैं। महंगे बीज / रासायनीक खाद के लिए कर्ज लिया। विगत वर्ष एक जांच समिति ने अपनी रिपोर्ट में हुई अत्यधिक आत्महत्याओं की वजह नए बीटी बीजों को बताया था। इसकी पुष्टि इस तथ्य से भी होती है कि पिछले कई वर्षों से विदर्भ और मराठवाड़ा से सर्वाधिक आत्महत्या की खबरें आ रही हैं, जहां के किसान कपास उगा रहे हैं।
सवाल यह है कि किसानों को कपास उगाने के लिए कहता कौन है? यह बाजार कहता है। उसके लिए तरह-तरह के प्रलोभन और कर्ज देती है, और किसान उनके झांसे में आ जाते हैं। फिर उनके हाथों में खेलने लगते हैं। इस तरह हम देखें तो कृषि क्षेत्र की बहुत सारी समस्याएं जो आज विकराल दिखाई देती हैं, उसकी एक प्रमुख वजह यह है कि कृषि क्षेत्र का बड़ी तेजी से व्यवसायीकरण हो रहा है। बाढ़, सूखा, अनावृष्टि, अतिवृष्टि आदि से भारतीय किसान सदियों से जूझता रहा है, लेकिन जिस तरह किसानों की आत्महत्याओं की खबर बड़े पैमाने पर आने लगी हैं, वैसा पहले नहीं था। तबाही पहले भी मचती थी। लेकिन आत्महत्या पर उतारू हो जाए किसान, ऐसा नहीं था। १९६६ में देश में भयंकर अकाल पड़ा था लेकिन किसी किसान ने आत्महत्या नहीं की थी।
यह भी एक सच है कि जो राज्य शिक्षा, प्रतिव्यक्ति आय, टेक्नोलॉजी के इस्तेमाल आदि में आगे हैं, सर्वाधिक आत्महत्याएं वहीं हो रही हैं। ७६ फीसद आत्महत्याएं महाराष्ट्र, कर्नाटक, आंध्रप्रदेश, केरल और मध्यप्रदेश में हुईं। उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, ओड़िशा, सिक्किम, मेघालय, उत्तराखंड, मिजोरम जैसे पिछड़े राज्यों में किसान आत्महत्याएं न के बराबर हुई है।