चेन्नै। दिल्ली के औरंगजेब रोड का नाम अब होगा एपीजे अब्दुल कलाम रोड। औरंगजेब रोड पर ही पाकिस्तान के संस्थापक मोहम्मद अली जिन्ना का भी बंगला है। नामों को बदलने की कहानी कुछ इस प्रकार है – देश के पहले राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद १, विक्टोरिया रोड के बंगले में रहे। इसलिए यह रोड हो गई राजेंद्र प्रसाद रोड। यह रोड शास्त्री भवन के ठीक आगे है। जिस कृष्ण मेनन मार्ग में आजकल अटल बिहारी वाजपेयी रहते हैं, इसे कभी कहते थे हेस्टिंग्स रोड। इधर ही रक्षा मंत्री रहने के दौर में कृष्ण मेनन भी रहे। शायद इसलिए यह रोड हो गई उनके नाम पर हो गई। दिल्ली के ‘काशी’ को १९६७ तक दिल्ली – मथुरा रोड कहते थे। फिर यह हो गया बहादुर शाह जफर मार्ग।
जिस जनपथ में देश के खास लोग रहते हैं, वह कभी था इम्पीरियल रोड। इसी रोड पर इम्पीरियल होटल भी है। इधर कॉफी पीने के लिए मोहम्मद अली जिन्ना लगातार आते थे। सन् १९७७ में इरविन रोड हो गया बाबा खड़ग सिंह मार्ग। बंगला साहिब मार्ग का पुराना नाम बेर्यड रोड ही था। वह अब भी अपनी जगह बनाए हुए है। इधर काली का प्राचीन मंदिर है। देश के तीसरे राष्ट्रपति जाकिर हुसैन की १९६९ में मृत्यु के बाद शवयात्रा वेजले रोड से निकली जामिया मिलिया इस्लामिया जाने के लिए। इसलिए इस रोड का नाम कर दिया गया जाकिर हुसैन मार्ग। यह रोड ओबराय होटल के ठीक सामने है। देश में ७० के दशक के अंतिम सालों में जनता पार्टी की सरकार बनी तो लगभग भुला से दिए गए समाजवादी आंदोलन के दो दिग्गजों क्रमश: राम मनोहर लोहिया और जयप्रकाश नारायण के नाम पर विलिंग्डन अस्पताल और इरविन अस्पताल के नाम रख दिए गए। उधर, जयप्रकाश नारायण अस्पताल के ठीक सामने वाली रोड १९७२ तक कहलाती थी सकरुलर रोड। उसके बाद हो गई जवाहर लाल नेहरू मार्ग। नेहरू-गांधी परिवार के सदस्यों के नामों पर गलियों और अस्पतालों के नाम रखे गए।
सत्तर के दशक के अंत से पहले राऊज एवेन्यू का नाम रख दिया जनसंघ के संस्थापक दीनदयाल उपाध्याय मार्ग के नाम पर। दरअसल १९६५ से लेकर १९७५ के दौरान दिल्ली में बहुत-सी जगहों के नामों को बदलने का सिलसिला चला।
अभी जो बवाल मचा है वह औरंजेब रोड़ को लेकर है। दिल्ली के औरंगजेब रोड का नाम अब होगा एपीजे अब्दुल कलाम रोड। औरंगजेब रोड पर ही पाकिस्तान के संस्थापक मोहम्मद अली जिन्ना का भी बंगला है। कट्टरपंथी नहीं चाहते की जिन्ना के नाम से जुड़ी चीजों पर कोई उंगली दिखाए। जो भी हो अब तो हो गया जो होना था। लेकिन अभी भी दिल्ली और देश के तमाम शहरों में आतंकी – लूटेरे मुगलों और अंगरेजों के नाम पर बहुत सारी सड़कें और गली है जिनके नाम ६८ साल पूर्व ही बदल जाने चाहिए थे लेकिन अभी तक बदलने की पहल नहीं हुई है। जैसे – जैसे समय बीतता जाएगा इन नामों को बदलने में मुश्किलें बढ़ती जाएगी क्योंकि उन लूटरे – आतंकियों की औलादों की संख्या भारत में तेजी के साथ बढ़ रही है जो विरोध के लिए हमेशा खड़े हो जाते हैं।
तमिलनाडु में भी ऐसे नामों की कोई कमी नहीं है। तमिलनाडु में तो अंगरेजों के स्मारक भी हैं जिन्हें आज भी सम्मान के साथ रखा गया है। चेन्नै नगर निगम का भवन ही आताताई अंगरेज के नाम पर रिपन बिल्डिंग है। जो जर्जर हो गया है फिर भी उसे तोड़ने की हिम्मत सरकार को नहीं हुई। अंतत: सरकार ने उसका नवीकरण किया। ऐसे सैंकड़ो उदाहरण तमिलनाडु में आज भी जिंदा है। भूतपूर्व स्व. थमिल संस्कृति मंत्री तमिलकुड़ी मगन ने ऐसा अभियान चलाया था और बहुतेरे नाम बदले थे। लेकिन उनके बाद तमिलनाडु की राजनीति में कोई व्यक्तित्व उभर कर नहीं आया जो अंगरेजों की परछाई से इस प्रदेश को मुक्त करा सके।
भारत का संसद मार्ग पहले पार्लियामेंट स्ट्रीट कहलाता था और संसद मार्ग के ठीक आगे की सड़क ओल्ड मिल्स रोड बदलकर रफी अहमद किदवई के नाम पर रफी मार्ग हुआ। वे भारत के शिक्षा मंत्री थे। अलबुर्कर रोड पर स्थित बिड़ला हाऊस में गांधी जी की हत्या हुई उसे अब कहते हैं तीस जनवरी मार्ग। इस जगह से एक फर्लाग की दूरी पर है राजेश पायलट मार्ग। आठ साल पहले तक यह साउथ एंड रोड था। ये औरंगजेब रोड यानी अब एपीजे अब्दुल कलाम रोड से सटा है। दिल्ली – ६ वाले एडर्वड पार्क १९७२ में सुभाष पार्क बना। ७० के दशक के आसपास ही हार्डिग एवेन्यू हो गया तिलक मार्ग और हार्डिग ब्रिज हो गया तिलक ब्रिज। उसी दौर में हार्डिग लाइब्रेरी को कहा जाने लगा हरदयाल लाइब्रेरी। इसी दौर में कर्जन रोड बन गया कस्तूरबा गांधी मार्ग। ७० के दशक के मध्य में लोधी रोड की एक खास सड़क का नाम तमिल कवि सुब्रमण्यम भारती मार्ग कर दिया गया। इसके पास ही गुरु देव रविंद्र नाथ टेगौर के नाम पर सरकारी अफसरों की कॉलोनी रविंद्र नगर भी है।
इतना कुछ होने के बाद भी जिसने दिल्ली को बनाया उसके नाम पर दिल्ली में एक पत्थर भी नहीं है। इतिहासकार आरवी स्मिथ ने इस बात पर अफसोस जताया कि सर सोबा सिंह के जनपथ स्थित घर के आगे एक पत्थर तक नहीं लगा है जो बताता हो कि आखिर कौन थे सर सोबा सिंह। जिस शख्स ने राजधानी की तमाम खासमखास इमारतों का ठेकेदार के रूप में निर्माण करवाया हो उसके नाम पर बंगले के बाहर तक कोई पत्थर नहीं लगा।.