आज कल के किशारों और युवाओं में अंतरजाल के प्रति जो लगाव बढ़ा है उससे उनमें ज्ञान की कमी आई है जबकि सूचना बढ़ी है। यहां पर प्रश्न निकलता है कि क्या सूचना ही ज्ञान है ? बिलकुल नहीं सूचना का ज्ञान से कोई लेना – देना नहीं है।
यही कारण है कि आजकल की युवा पीढ़ी पढ़ने – लिखने में पिछड़ रही है, यानी भारत एक बेहतर राष्ट्र होने से पिछड़ रहा है। इंटरनेट और तकनीकी शिक्षा के प्रति विद्यार्थियों के बीच जो गहरा लगाव उपजा है, उससे साहित्य और मानविकी जैसे विषयों को पढ़ने – पढ़ाने की परंपरा को हानि पहुंच रही है। दूसरी ओर, शिक्षक के दृष्टिकोण से शिक्षा राष्ट्र निर्माण के वृहद् सरोकार से भटकर एक पेशा मात्र रह गई है। यही कारण है कि शिक्षा और ज्ञान में भी फर्क आ गया है। इसे समझने की दृष्टि से देखें तो शिक्षा अक्षर ज्ञान हो सकता है, प्रमाण पत्र वाला हो सकता है लेकिन ज्ञान के लिए न तो अक्षर ज्ञान की जरुरत है और न ही प्रमाण पत्र की।
आज जो कुछ सस्ते में मिलता है उसे साधारण और दोयम दर्जे का माना जाता है। महंगे मोबाइल, महंगी पोशाक, महंगी शिक्षा को वरीयता देना नई पीढ़ी के बीच विचार आ गया है। साहित्य और मानविकी के विषयों के तहत दी जाने वाली शिक्षा मनुष्य को नैतिक और अच्छा मनुष्य बनने में काम आती है। जबकि किसी व्यक्ति या परिवार का जीवन-स्तर बिना संसाधन के ऊंचा हो सकता है, मगर सिर्फ किसी को छोटा दिखाने और खुद को बड़ा साबित करने के लिए दिखावा करने को कैसे ज्ञान से जोड़ा जा सकता है। यही कारण है कि साहित्य के स्थान पर विज्ञान और गणित जैसे विषयों की महत्ता बढ़ रही है लेकिन मानव को मानव बनाने कार्य तो साहित्य से हटी होता है।
परिवार समाज की प्रथम इकाई है अत: माता – पिता या अभिभावक प्रथम गुरु हैं। उनकी भाषा में ही उनके बच्चे अच्छा बन सकते हैं। मगर वे अंग्रेजी पढ़ने और बोलने का दबाव बनाते हैं। वहीं शिक्षक कक्षा में सिद्धांत या किताबी ज्ञान बघार कर विद्यार्थी की सोच को कुंठित करते हैं। समस्या ज्ञान और विवेक अर्जित करने की नहीं, बल्कि परिवेश से सीखने की है। विज्ञान और गणित यही मातृभाषा में पढ़ाई जाए तो बच्चे अधिक अंक पा जाते हैं।
माता – पिता या अभिभावक, शिक्षक और विद्यार्थी तीनों ही अपनी-अपनी भूमिकाओं को निभाने में अक्षम हैं। फिर भी सृजनशीलता और रचनात्मकता को महत्त्व देने के बजाय हम केवल यंत्र के दास हो रहे हैं। सत्य, अहिंसा और स्वाभिमान जैसे शब्द अब केवल किताबी ज्ञान बन कर रह गए हैं, जिसका मर्म कोई नहीं समझता। मातृभाषा में हमारी परंपरा और अनुभव दोनों एक साथ जीवंत होकर बोलते हैं। ‘कोस-कोस पर पानी बदले, पांच कोस पर वाणी’ वाले राष्ट्र की विविधता को एकता में पिरोने की जो परंपरा है, उसकी रक्षा का दायित्व सभी के कंधों पर है। यदि ऐसा हुआ तभी हम शिक्षा को ज्ञान में बदल सकते हैं।
भारत में बाईस राजभाषाएं हैं। इसके बावजूद हरेक हिन्दी के लिए सभी का मन बोलने को करता है। जबकि अंग्रेजों ने अपनी शिक्षा-नीति में जिस अंगे्रजी को काबिज किया, वह आज भी देश को बांट रही है। अमीर-गरीब, बड़े-छोटे, ऊंचे-नीचे, सवर्ण-अवर्ण का भेद अंग्रेजी में झलकता है। विज्ञापन और मीडिया इसके अस्त्र हैं जो हमें ‘परफेक्ट कल्चर यानि विकृत संस्कृति’ की ओर ले जा रहे हैं। संपूर्णता की तलाश जीवन हो सकता है, लेकिन जीवन संपूर्ण नहीं है। इसलिए उसे सुंदर और बेहतर बनाने की खोज मनुष्यता का सबसे बड़ा लक्षण है। इसमें खोज ज्ञान की होनी चाहिए। इसलिए आज की शिक्षा को ज्ञान परक बनाने की जरुरत है न कि मात्र अक्षर ज्ञान वाला शिक्षा। जिसमें विद्यार्थी अपने पैरों पर खड़ा भी नहीं हो पाता है।
इसकी पहल कौन करे ? कौन साहित्य में रस घोले ? कौन संगीत के तार छेड़े ? काश ! हमारी सरकारें शिक्षा के स्थान पर ज्ञान के विकास के लिए आगे आती।