भारत में मदरसों की शिक्षा पर जब भी सवाल उठाए जाते हैं हाय तौबा मच जाती है लेकिन अब स्वयं पाकिस्तान ही मानने लगा है कि मदरसों में कई ऐसी शैक्षणिक संबंधी गतिविधियां हो रही है जिसके कारण हिंसा को बढ़ावा मिल रहा है और इस पर अंकुश लगाना जरुरी है।
इसके कुछ प्रमाण हैं – पाकिस्तान के पेशावर में पिछले साल तालिबान के हमले में १४० लोगों के मारे जाने के कुछ दिन बाद ही पाकिस्तानी अधिकारियों ने एक सुरक्षा योजना का ऐलान किया था। इसमें तय किया गया था कि ऐसे चरमपंथियों के खिलाफ कड़ी करवाई की जाएगी। इसी के तहत इनमें से एक था ‘मदरसों की कड़ी निगरानी करना’, जिन पर छात्रोें में आतंकवादी विचार भरने और जातीय हिंसा को बढ़ावा देने के आरोप लगते रहे हैं। कुछ बानगियां देखें तो इस वर्ष पिछले माह पाकिस्तान की सरकार ने ४८ मदरसों के विरुद्ध कार्रवाई करने को कहा था। ये मदरसे सिंध प्रांत के चरमपंथी समूहों से जुड़े हुए थे। इन्हीं कारणों से पाकिस्तान के राजनैतिक विश्लेषक मानते हैं कि जातीय हिंसा ख़त्म करने के लिए पाकिस्तान की शिक्षा प्रणाली पर नए सिरे से विचार करने की ़अति आवश्यकता है।
प्रश्न यही उठता है कि क्या ऐसी पहल भारत में हो सकता है ? कई बार भारत के खुफिया एजेंसियों ने प्रमाण दिए है कि चरमपंथियों की शिक्षा मदरसों में होती आई है। इस संबंध में देखें तो भारत और पाकिस्तान की स्थिति लगभग बराबर है। न ही भारत में और न ही पाकिस्तान के मदरसों में विज्ञान आदि आज के जरुरी विषय पढ़ाये जाते हैं। बल्कि उसके स्थान पर धार्मिक उन्माद बढ़ाये जाने जैसे विषय पढ़ाये जाते रहे हैं। बच्चों का मन कोमल और सरल होता है, इस कारण इस उम्र में जो कुछ भी सिखलाया जाता है उसे बच्चे अपने जीवन का अंग मान बैठते हैं और यही उनके जीवन का उद्देश्य बनकर रह जाता है।
पाकिस्तान के समाचार पत्र में प्रकाशित एक समाचार के अनुसार कराची के जामिया इस्लामिया मदरसे के सदस्य मोहम्मद अकबर कहते हैं कि क़ुरान याद कर रहे छात्रों को टीवी से बचने की सलाह दी जाती है। अख़बार पढ़ने को भी ध्यान भटकाने वाला माना जा सकता है। एक छात्र जनवरी २०१५ में डॉन समाचार पत्र में लिख कि, ‘हमारे शिक्षक एक ऐसे लोकतंत्र के पक्ष में हैं जो कुरान और सुन््नाह (पैगंबर मोहम्मद की शिक्षाएं) के अनुरूप हो और इस्लामिक शासक हो।’ यही समाचार पत्र लिखता है कि मार्च २०१४ में पाकिस्तानी संसद में रखे गए सुरक्षा पुलिस के एक दस्तावेज़ में कहा गया था कि ‘बड़ी संख्या में चरमपंथी या तो मदरसों के छात्र हैं या रहे हैं और उनके दिमाग़ में हथियार उठाना भर दिया जाता है।’
पाकिस्तान के सरकारी पब्लिक स्कूलों में भी अतिवादी विचारों की गुंजाइश रखने का आरोप लगते रहे हैं। पाकिस्तान के मौजूदा राष्ट्रीय पाठ्यक्रम में धर्म पर बहुत ज़ोर दिया जाता है। इसे पूर्व सैन्य शासक जनरल जिया उल हक़ ने शुरू करवाया था, जिन पर देश के इस्लामीकरण का आरोप है। पाकिस्तान के एक राजनैतिक विश्लेषक परवेज़ हूदभॉय मानते हैं कि ऐसा पाठ्यक्रम पढ़ने और समझने, रचनात्मक लेखन, विज्ञान और गणित के लिए पूरा समय नहीं देता है। इन्होंने पाकिस्तान में शिक्षा सुधारों पर एक शोधपत्र भी लिखा था। जिसका बहुत गहरा असर हुआ और कॉलेज और यूनिवर्सिटी परिसरों में जंगी जिहाद जल्द ही संस्कृति का हिस्सा बन गया।
ऐसे प्रसंग कई बार पाकिस्तान में उठते रहे हैं। उदाहरण के लिए देखें तो दिसबंर, २०१४ में डॉन समाचार पत्र ने लिखा कि शिक्षा के लिए काम करने वाली मलाला यूसुफ़ज़ई के गृह प्रांत ख़ैबर पख़्तूनख़्वाह में सरकार का लक्ष्य स्कूली पाठ्यपुस्तकों में इस्लाम तत्व बढ़ाना है। इस पर विशेषज्ञों का कहना है कि यह ऐसा क़दम है जिससे हिंसक जिहाद को बढ़ावा मिलता है। इतना ही नहीं सरकार में शामिल जमात – ए – इस्लामि के नेतृत्व में विज्ञान की किताबों में क़ुरान की उन आयतों को फिर से शामिल करने की मांग की जा रही है जो जिहाद से संबंधित हैं। ख़ास कर उन हिस्सों को जो ‘विश्व के दैवीय निर्माण’ की बात करते हैं। वे प्राथमिक कक्षाओं की उन पाठ्यपुस्तकों पर भी प्रतिबंध लगाने की मांग कर रहे हैं जिनमें लड़कियों को बिना हिजाब के दिखाया गया है।
ऐसे और भी कई सच सामने आए हैं जैसे इस्लामाबाद में सऊदी अरब की आर्थिक मदद से चलने वाले अंतरराष्ट्रीय इस्लामिक विश्वविद्यालय की छात्रा आमना शफ़ाक़त कहती हैं कि कुछ शिक्षक तब तक कक्षा में प्रवेश नहीं करते जब तक सब लड़कियां अपने सिर न ढँक लें।
पाकिस्तान में मदरसों का नियमन अधिकारियों को असंभव लगता है। उन्होंने कई बार शिक्षा के क्षेत्र में सुधार लागू करने की कोशिश की, लेकिन बहुत कम कामयाबी मिली। इतना ही नहीं वर्ष २००४ में जब तात्कालिक विदेश मंत्री ज़ुबैदा जलाल ने जिहाद पर क़ुरान की आयतों को किताबों से हटाने की कोशिश की तो उनका भारी विरोध हुआ और अंततः उन्हें इस्तीफ़ा देना पड़ा। मुशर्रफ़ ने भी एक परियोजना शुरू की थी, जिसमें मदरसों को तभी आर्थिक मदद दी जानी थी जब वह सामान्य विषयों को भी पाठ्यक्रम में शामिल करते। लेकिन यह योजना भी नाकाम हो गई क्योंकि मदरसों ने पैसा तो ले लिया लेकिन निगरानी से इनकार कर दिया। इस समय पाकिस्तान में ३५,००० से ज़्यादा पंजीकृत मदरसे हैं और ८,००० से ़ज्यादा गैर पंजिकृत है। पाकिस्तान इस पर कारवाई नहीं कर पा रहा है। इसके कई कारण हैं जिनमें से ताकतवर मौलवियों के विरोध के साथ ही विदेशों से आने वाला पैसा भी है। पाकिस्तानी अधिकारी मदरसों को विदेशों – ख़ासकर ईरान, सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात से मिलने वाले पैसे को रोकने की कोशिश कर रहे हैं। लेकिन इस दिशा में बहुत कम सफलता मिल पाई है।
पाकिस्तान के एक केंद्रीय मंत्री ने सार्वजनिक रूप से सऊदी अरब सरकार पर मदरसों को वित्तीय सहायता के ज़रिए पाकिस्तान में अस्थिरता फैलाने का आरोप लगाने का साहस किया है। ज्यादातर पाकिस्तानी मदरसे विदेशी धन पर ही निर्भर हैं। वे ़ज्यादा से ज्यादा छात्रों को इसीलिए आकर्षित कर पाते हैं क्योंकि वे मु़फ्त शिक्षा के साथ – साथ मुफ्त खाना और आवास भी देते हैं। पाकिस्तानी विश्लेषक मानते हैं कि इसीके कारण मदरसे की गतिविधियों को मुख्य धारा में नहीं जोड़ा जा सकता।
पाकिस्तान के समाचार पत्रों के इन समाचारों को यहां पर लिखने के पीछे एक ही उद्देश्य है – हम यह जान सवेंâ कि इस्लामिक राष्ट्र पाकिस्तान में मदरसों के सुधार के लिए गंभीरता पूर्वक प्रयास हो रहे हैं लेकिन भारत में इस दिशा में कोई कदम नहीं उठाया जा रहा है। हमारी सरकारों को वोट की राजनीति से हटकर इस दिशा में सार्थक प्रयास करने चाहिए ताकि समय पर राष्ट्र के खिलाफ पनप रही गतिविधियों पर पाबंदी लगाई जा सके।.